भारतीय कृषि :-कृषि से अभिप्राय उन सभी क्रियाओं से है जिनका संबंध फसलों के उत्पादन के लिए भूमि को जोतने से है जैसे:- खाद्यान फसले: गेहूं और चावल तथा गैर खाद्यान्न फसले: जूट और कपास
भारतीय कृषि की विशेषताएं :-
1. देश में कृषि का उत्पादन मुख्य रूप से वर्षा तथा अन्य प्राकतिक तत्व, जैसे- बाढ़, सूखा, तूफान आदि पर निर्भर करता है।
2. देश में विभिन्न किस्मों की फसलें होती है, जिनमें अनाज, दालें, तेल के बीज, नकद फसलें जैसे -गन्ना, कपास, पटसन, आलू आदि प्रमुख हैं।
नोट :-
- नकदी फसलों की श्रेणी में उन फसलों को शामिल किया गया है, जिन्हें खेतों से निकालकर सीधे बाज़ार में बेचा जाता है। या फिर ये कहे की जिन्हें अधिक समय तक भंडारित नहीं किया जा सकता।
- भारत में वे सभी फसलें जो सर्दी एवं वसंत ऋतू में होती है, उन्हें रबी की फसल कहा जाता है. यह अक्टूबर के अंत से मार्च या अप्रैल के बीच तक का समय होता है. रबी की फसलों को सर्दी की फसलों के रूप में भी जाना जाता है. जैसे : गेंहू, जई (ओट), जौ, मकई, सौंफ, राई, मैथी दाना, धना, जीरा, गाजर, चना, प्याज, टमाटर, आलू आदि
- खरीफ वह फसल है जिसकी बुवाई वर्षा ऋतु के आगमन( जुलाई – अगस्त) या मानसून के आगमन के साथ किया जाता है, यह फसल पूर्णत: वर्षा के जल पर निर्भर करता है और इसकी कटाई अक्टूबर – नवम्बर में हो जाता है। जैसे ;- धान, टमाटर, ब्लैक ग्राम, अरहर इत्यादि।
3. एक राज्य का ऐतिहासिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक इतिहास कृषि उत्पादन को प्रभावित करता हैं
4. कृषि व्यावसायिक क्रिया के स्थान पर जीवन निर्वाह का साधन बन गई है। अतः उत्पादन मुख्य रूप से स्व-उपभोग के लिए होता है। इसका एक कारण जोतो का आकार छोटा होना भी है
5. भारतीय कृषि में मशीनों (ट्रैक्टर,थ्रेशर ) का प्रयोग कम होता है और इसके अलावा रसायनिक उर्वरको और कीटनाशक दवाइयां का प्रयोग भी कम किया जाता है।
6. कृषि क्षेत्र में मौसमी और प्रच्छन्न बेरोजगारी पाई जाती है। इसे छिपी बेरेाजगारी भी कहते है।
7 .भूमि के बड़े भाग पर काश्तकार द्वारा खेती की जाती है ये भूमि के स्वामी नहीं होते है बल्कि भूमि पट्टे पर लेते है इसलिए अधिक लाभ भूमि के स्वामी के स्वामी को होता है काश्तकार रोजगार न मिलने के कारण संघर्ष में जीवन बिताते है
भारतीय कृषि का महत्व या भूमिका :-
1. राष्ट्रीय आय में हिस्सा :- कृषि हमारी राष्ट्रीय आय का मुख्य स्त्रोत है। 1950-51 में राष्ट्रीय आय में योगदान लगभग 50 प्रतिशत से अधिक था जोकि वर्तमान 17.1 प्रतिशत रह गया है। कृषि क्षेत्र के घटते प्रतिशत योगदान का अर्थ यह नहीं है की कृषि उत्पादन में कमी आयी है बल्कि कृषि क्षेत्र के विकास से ही ये संभव हुआ है
2. रोजगार में हिस्सा:- भारत में कृषि रोजगार प्रदान करने वाला सबसे बडा स्त्रोत है। इसके द्वारा ही कुल श्रम शक्ति के लगभग 52.1 प्रतिशत लोगों को रोजगार प्राप्त होता है इसने लोगो को अजीविका कमाने का साधन प्रदान किया जाता है।
3. औधोगिक विकास का लिए आधार:- भारत में कृषि औधोगिक क्षेत्र के विकास में बहुत मुख्य भूमिका निभाती है। कृषि द्वारा कच्चा माल, जैसे-कपास, लकडी, गन्ना, पटसन आदि की पूर्ति उत्पादक उघोगों को की जाती है।
4. विदेशी व्यापार में महत्व :- देश के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में कृषि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में निर्यात की मुख्य मदे मसालें, कपास, पटसन, चावल, तेल आदि हैं।कृषि क्षेत्र विदेशी विनिमय का आधार बन गया है।
5. घरेलू उपभोग में महत्व:- भारत में प्रतिव्यक्ति आय में कमी होने के कारण कुल आय का बड़ा भाग खाने पर खर्च किया जाता है।
6. व्यापार तथा सेवाओ के लिए महत्व:- देश के व्यापार और सेवाओ का एक बड़ा भाग कृषि की गतिविधियो पर निर्भर करता है। जिसमें मुख्यतः परिवहन, बैंकिंग, संग्रहण तथा भंडार शामिल हैं।
7.मजदूरी वस्तुओ की पूर्ति : वे वस्तुए जो देश के लोगो द्वारा अपने जीवन निर्वाह में प्रयोग की है उन्हें मजदूरी वस्तुए कहते है जैसे : गेंहू, चावल,दाले आदि यह वस्तुए पशुओ के चारे और लोगो के भोजन के रूप में प्रयोग है
भारतीय कृषि की समस्याएं :-
प्रति श्रमिक तथा प्रति हेक्टेयर दोनो के आधार पर कृषि उत्पादकता कम है। भारतीय कृषि की समस्याएं इस प्रकार हैं :-
भारतीय कृषि की सामान्य समस्याएं :-
1. सामाजिक वातावरण :- गांवो का सामाजिक वातावरण कृषि विकास में बाधक होता है। अधिकतर किसान निरक्षर, संकीर्ण तथा अंधविश्वाशी होते हैं, इसलिए वे न तो पैतृक भूमि को छोड़ना चाहते हैं और न ही आधुनिक तकनीक को अपनाना चाहते हैं उनके लिए यह कोई व्यापार नहीं है सिर्फ जीवन निर्वाह का एक साधन है
2. भूमि पर जनसंख्या का दबाव :- भारत में जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है तथा बढ़ती श्रम शक्ति को समाहित करने का दबाव कृषि क्षेत्र पर ही है।
3. फसलो का नुकसान :- कीड़ो, मकोड़ो, फसलो की बीमारियों, बेमौसमी वर्षा सूखा आदि के कारण कृषि उत्पादन में हानि होती है, जिससे कृषि उत्पादों की उत्पादकता कम हो जाती है।
भारतीय कृषि की संस्थागत समस्याएं :-
सुधार की दोषपूर्ण प्रवृति :- कम उत्पादकता का एक सबसे महत्वपूर्ण कारण भूमि सुधारों को गलत ढंग से लागू करना है। किसानों में उत्पादन बढाने की क्षमता एंव इच्छा की कमी है। अधिकतर भू -स्वामी खेती नहीं करते वे अपनी जमीन को पट्टे पर देते है और ऊँचा लगान वसूल करते है इसलिए पट्टेदार के पास निवेश के लिए अतिरेक नहीं होता है
साख एंव बाजार सुविधाओं का अभाव :- अपर्याप्त साख एवं बाजार सुविधाओं के कारण काश्तकार कृषि में अत्यधिक निवेश करने की योजना में सक्षम नहीं है। यदि ये सुविधाएं दी जाने लगे तो भारत में कृषि उत्पादकता को सुधारा जा सकता है।
भारतीय कृषि की तकनीकी समस्याएं :-
उत्पादन की अप्रचलित तकनीकें :- अधिकतर किसान आज भी परम्परागत लकडी के हल बैल से खेती करते है तथा सिंचाई के लिए मानसून पर निर्भर करते है। उच्च पैदावार वाले बीजों, रसायनों उर्वरकों, खादो तथा कीटनाशको व सिंचाई सुविधाओं का प्रयोग सीमित है और इससे उत्पादकता मेें कमी आती है।
भारतीय कृषि में सुधार :-
1. भूमि सुधारः– मध्यवर्ती व्यक्ति जैसे:- जमींदार, महलवाड़ तथा रैयतवाड़ आदि जो वास्तविक काश्तकारों से किराया एकत्रित करते थे वे काश्तकारों से दासों जैसा व्यवहार किया करते थे। स्वतन्त्रता के बाद इनका उन्मूलन किया गया जिसके परिणाम स्वरूप भूमि पर स्वामित्व अब राज्य सरकार का हो गया सरकार 173 करेाड़ एकड भूमि मध्यवर्तीयों से लेकर भूमिहीन किसानों को दी गई।
2. काश्तकारी में सुधार :- जमींदार स्वयं खेती नहीं करते,वे इसे काश्तकारों को किराये पर देते है। काश्तकार जमींदारों की दया पर रहते है। इसके लिए निम्न सुधार किए गए:-
(i) किराये का नियमन :- स्वतंत्रता के बाद, सभी राज्यों में काश्तकारों द्वारा किराये के भुगतान को स्थिर करने के लिए कानून बना दिया गया।
(ii) काश्तकारों की सुरक्षा :- अधिकतर राज्यों ने काश्तकारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए कानून पारित कर दिया है। जमींदार अपने पास भूमि का सीमित क्षेत्र केवल व्यक्तिगत कृषि के लिए रख सकते है।
(iii) काश्तकारों का स्वामित्व अधिकार :- कुछ राज्यों में अधिकर काश्तकारों को स्वामी बनाया गया है तथा उन्हें पिछले भू-स्वामी को क्षतिपूर्ति का भुगतान करने को कहा गया है। कुछ अन्य राज्यों में, राज्य भूमि के स्वामी बन गए है।
3. कृषि का पुनः संगठन :-
कृषि का पुनः वितरण :- भू-स्वामियों की सीमा निर्धारित कर दी गई है। इसका अभिप्राय भूमि के आकार की न्यूनतम एंव अधिकतम सीमा से है, जिसे खरीदने की अनुमति एक व्यक्ति को प्रदान की गई है। सरकार द्वारा अधिशेष भूमि को फिर से छोटे धारकों या भूमिहीन मजदूरों के बीच पुनर्वितरित किया गया।
जोतों का एकीकरण:- इसमें छोटे-छोटे बिखरे हुए भूमि के टुकडों को एक साथ जोडकर एक ब्लाॅक बनाया जाता है तथा इसके बाद एक स्थान पर भूमि प्रदान की जाती है। यह अधिकतर पंजाब,हरियाण तथा उत्तर प्रदेश में संभव हो पाया है।इसी को चकबन्दी कहते है।
सहकारी कृषि :- इस योजना में, गांव के सभी भू-स्वामी गांव में खेती करने के लिए एक सहकारी समिति बनाते है। छोटी जोतों को मिलाकर उन पर एक साथ खेती की जाती है ताकि कार्यशील इकाई का आकार बढाया जा सके तथा पैमाने की बचतों का लाभ प्राप्त हो सके।
अन्य उपायः–(i)सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया गया देश के कई भागों में कई बडी और छोटी सिंचाई परियोजनाए शुरू की गई। 1951 में केवल 17 प्रतिशत भूमि पर सिंचाई के स्थाई साधन थे, अब यह बढकर 40 प्रतिशत हो गया है।
(ii)प्रौद्योगिकी सुधार भी किये गए है जैसे : HYV बीजो का प्रयोग, रासायनिक खाद का प्रयोग, कीटनाशक दवाइओ का प्रयोग।
(iii) कम से कम ब्याज दर पर किसानों को ऋण उपलब्ध करवाने के लिए साख समितियों का निर्माण किया गया इसके अलावा ग्रामीण बैंको का भी निर्माण किया गया । सन 1982 में राष्ट्रीय कृषि एंव ग्रामीण विकास बैंक NABARD की स्थापना की गई।
(iv) कीमत समर्थन:- किसानों को बाजार की अनिश्चिताओं से सुरक्षित रखने के लिए कीमत समर्थन नीति को लागू किया गया। इससे किसानो को फसल की न्यूनतम कीमत मिलने आसवासन प्राप्त हुआ।
भू-सुधार की प्रक्रिया की धीमी गति के कारण :-
(1) राजनैतिक इच्छा का अभाव:- भू-सूधारों को लागू करने के लिए कठोर राजनैतिक निर्णयों, प्रभावशाली राजनैतिक समर्थन, निर्देशन तथा नियन्त्रण की आवश्यकता है।आवश्यक राजनैतिक इच्छा के बिना कोई भी भौतिक प्रगति संभव नहीं है।
(2) कानून में कमियां:- कानूनी तौर पर व्यक्तिगत कृषि के लिए स्वामी द्वारा व्यक्तिगत मजदूरी के स्थान पर व्यक्तिगत निरीक्षण आवश्यक है।
(3) व्यक्तिगत कृषि के लिए भूमि का निर्वाहित क्षेत्र रखने की अनुमति दी गई थी।
(4) ऐच्छिक समर्पण की समस्या:- जमीदारों ने काश्तकारों को ऐच्छिक रूप से भूमि पर स्वामित्व छोडने के लिए बाध्य किया इस उद्देश्य के लिए उन्हे अक्सर धमकाया तथा पीटा जाता था ।
(5) भू-स्वामित्व सीमा के कानून की अपर्याप्तता:- 1972 तक भिन्न-2 राज्यों में सीमा का स्तर अलग-अलग था। इससे बहुत झगडे़ तथा भूल उत्पन्न हो गई । केवल 1972 के बाद समान कानून बनाए गए, परन्तु तब तक बडी मात्रा में नुकसान हो चुका था ।
हरित क्रांति :- भारत में हरित क्रांति की शुरुवात अक्टूबर,1965 में हुई। इसके जन्म दाता एम एस स्वामीनाथन थे इस क्रांति ने भारत को कृषि उत्पादकता में आत्मनिर्भर बना दिया जिससे भारत की गिनती कृषि उत्पादकता अग्रीण रहने वाले देशो में होने लगी इसका दौर 1967 में शुरू हुआ और 1978 तक चला। मुख्य रूप से इसके दो अवस्थाऐ थी
1 . प्रथम अवस्था :- 60 के दशक के मध्य से 70 के दशक के मध्य तक
2 . दूसरी अवस्था :- 7 0 के दशक के मध्य से 80 के दशक के मध्य तक
यह केवल पाँच फसलों:- गेहूं, चावल, बाजरा, मक्का तथा ज्वार के उत्पादन तक सीमित थी। इसके तीन मुख्य तत्व थें:-
(1) कृषि क्षेत्र में लगातार वृद्धि (2) बहु-फसली कृषि भूमि की उपलब्धता (3) उंची उपज वाले बीजों का प्रयोग
विशेषताएं : –
(1)भारत में पहली बार पारम्परिक बीजो के स्थान पर उच्च किस्म के बीजो (HYV) का प्रयोग किया गया
(2) कृषि में रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाने लगा
(3 ) सिचाई के लिए उपकरणों का प्रयोग किया जाने लगा और अनेक परियोजनाओं का शुभारभ हुआ
(4 ) न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा अनाज की बुआई के समय पहले से घोषित कर दी जाती है, ताकि किसानों को विश्वास दिलाया जा सके कि उन्हें उनके उत्पादन का उचित मूल्य प्राप्त होगा।
(5 ) कृषि में आधुनिक यंत्रो के प्रयोग को बढ़ावा दिया गया ताकि उत्पादकता में वृद्धि हो
भारतीय कृषि संबंधी मुख्य उपलब्धियां :-
(1) उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि
(2) आय में वृद्धि ।
(3) व्यावसायिक खेती में वृद्धि ।
(4) सामाजिक क्रांति में वृद्धि तथा पुराने अंधविश्वासों तथा रिवाजों को नष्ट कर दिया गया और लोग अब स्वेच्छा से नए तकनीकी परिवर्तन, बीजोें ओर उर्वरकों को अपनानें लगे।
(4) रोजगार के स्तर में वृद्धि हुई ।
आर्थिक प्रभाव :-
भारतीय कृषि उत्पादन में वृद्धि:- हरित क्रांति का प्रत्यक्ष प्रभाव बढे हुए कृषि उत्पादन से देखा जा सकता है। कृषि उत्पादन सूचकांक जो कि 1970-71 में 85.9 था, 2005-06 में यह बढकर 189.2 हो गया है। यह परिवर्तन केवल कुछ फसलों के उत्पादन पर अधिक देखा गया है जैसे गेहूं का उत्पादन जो कि वर्ष 170-71 में 23.0 मिलियन टन था, 2008-09 में बढ़कर 77.8 मिलियन टन हो गया, चावल का उत्पादन इसी समय अवधि में 42.2 मिलिटन से बढ़कर 99.2 मिलियन टन हो गया। इसके अलावा ज्वार, तिलहन, दालों, कपास व गन्ने के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।
भारतीय कृषि उत्पादकता में वृद्धि:- कृषि उपज में वृद्धि का प्रमुख कारण प्रति-हैक्टेयर ऊपज में वृद्धि को माना जा सकता हैं। आंकड़ों के आधार पर हम यह स्पष्ट देख सकते है। कृषि उत्पादकता का जो सूचकांक 1970-71 में 92.6 था वह 2008-09 में बढ़कर 188.7 हेा गया।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि नई कृषि व्यूह-रचना से कृषि उत्पादन और कृषि उत्पादकता दोनों में ही वृद्धि हुई है लेकिन नई व्यूह-रचना का प्रभाव कुछ फसलों और विषेश रूप से गेहूं तक ही सीमित रहा है।
हरित क्रांति के सामाजिक प्रभाव :-
रोजगार में वृद्धि :- हरित क्रांति के कारण जमीन के एक टुकड़े पर अब कई फसले उगाई जा सकती है इसलिए मौसमी बेरोजगारी को काम करने में काफी सहायता मिली है इसके आलावा नए उपकरणों के प्रयोग और सिचाई सुविधाओं में बदलाव से भी काफी हद तक रोजगार को बढ़ावा मिला है |
आय में वृद्धि :- हरित क्रांति के कारण ग्रामीण क्षेत्र में लोगों की आय के स्तर में वृद्धि हुई है। उत्पादन में वृद्धि तथा सरकार द्वारा कृषि समर्थन मूल्यों को लागू करने से ग्रामीण क्षेत्र में बड़ी मात्रा में आय का सृजन हुआ है। लेकिन हरित क्रांति के दो बुरे प्रभाव भी हुए है। पहला, हरित क्रांति से गांवो में व्यक्तिगत असमानता को बढ़ावा मिला है, तथा दूसरा इसके द्वारा क्षेत्रीय असमानताओं में भी वृद्धि हुई है।
व्यक्तिगत असमानताएं :- हरित क्रांति से असमानताओं में भी वृद्धि हुई है तथा धनी और निर्धनों के बीच विद्यमान खाई और भी अधिक बढ़ी है। नई तकनीक के प्रयोग से छोट और बडे फार्म समान मात्रा में उत्पादन में वृद्धि कर सकते थे लेकिन नई व्यूह-रचना के तकनीकी ज्ञान का लाभ केवल बड़े लोगों तक ही क्रियाशील रहा अन्य शब्दों में नए परिवर्तनों का लाभ उन लोगों को मिला जिनके पास भूमि तथा अन्य परिसम्पतियों का स्वामित्व है। इसके विपरीत सीमांत (छोटे ) किसानों को इनके लाभ से वंचित रहना पड़ा जिससे आय की असमानता में वृद्धि हुई हैं इसे हम निम्न द्वारा स्पष्ट कर सकते है:-
- यह तकनीक काफी अधिक खर्चीली है जिसके कारण दुर्बल किसान इस तकनीक में प्रयोग किए जाने वाले आगतों को प्रयोग करने में सक्षम नहीं है। दूसरी तरफ बड़े किसान इन आगतों को असानी से क्रय कर सकते थे जिसके कारण इनका लाभ केवल बड़े किसानों को ही प्राप्त हो सका।
- नई तकनीक को अपनाने में जोखिम अधिक था। शीघ्र पकने वाली फसल के आरम्भ से अंत तक उचित देखभाल की आवयकता होती है। इस समयकाल में कोई भी गलती होने पर पूरी फसल नष्ट हो सकती है। इसके अलावा अधिक उपज वाले बीज अधिक मात्रा में कीटों को आकर्षित करते है इन सभी कारणों के नई तकनीक जोखिमों से भरी है। इन्हीं जोखिमों से बचनें के कारण छोटे किसान अपनी परम्रागत तकनीक को अपनातें है।
क्षेत्रीय असमानताएं :- नई तकनीक का प्रयोग केवल उन क्षेत्रों तक ही सीमित होता है जहां फसलों के लिए निरन्तर सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध होती है। भारत में कृषि भूमि के केवल एक चौथाई भाग को ही पूरे वर्ष में सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि कृषि के अन्तर्गत तीन-चैथाई भूमि को नई तकनीक के लाभ प्राप्त नहीं हो पाते। सामान्यतः हरित क्रांति के लाभ देश के उतरी-पश्चमी क्षेत्र जिसमें पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश प्रमुख है, को प्राप्त हो सकें।
हरित क्रान्ति की कमीयां : – 1. उन्नत बीजों तथा रासायनिक उर्वरक बहुत महंगें है इसलिए धनी किसान ही इनका प्रयोग कर सकते है। 2. हारित क्रान्ति केवल उन क्षेत्रों तक ही सीमित है, जहां सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध है। अतः हरियाणा और पंजाब का ही विकास अधिक हुआं जिससें क्षेत्रीय असमानता में वृद्धि हुई 3. हरित क्रान्ति गेहूं तथा चावल जैसी कुछ फसलों तक ही सीमित है, अन्य फसलों में कोई परिवर्तन नहीं आया जैसे दलहन और तिलहन
किसानो को आर्थिक सहायता :- जब साकार किसानो को बाजार कीमत से कम कीमत पर आगते (साधन) उपलब्थ करती है तो उसे आर्थिक सहायता कहते है |
पक्ष में तर्क :-
- देश में गरीब किसानो की संख्या काफी अधिक है इसलिए आर्थिक सहायता के बिना वे कृषि आगतो को नहीं खरीद पाएंगे
- यदि आर्थिक सहायता को ख़तम कर दिया जाए तो अमीरी और गरीबी के बीच अंतर और अधिक बढ़ जाएगा ।
विपक्ष में तर्क :-
- उच्च किस्म के बीजों पर जो सहायता दी गई है उसका मुख्य लाभ ज्यादातर बड़े किसानो को ही मिला इसलिए इसे अब बंद कर देना चाहिए
- आर्थिक सहायता तब तक ठीक होती है जितनी उसकी जरुरत हो, अधिक मिलने से उसका गलत प्रयोग होना शुरू हो जाता है