उत्पादन लागत की धारणाएं
Concepts of Cost
लागत :-
प्रत्येक फर्म वस्तुओं का उत्पादन करते समय उत्पादन के साधनों भूमि, श्रम, पूंजी, कच्चे माल तथा मध्यवर्ती वस्तुओं का प्रयोग करती है जिन्हें आगत (Inputs) कहते हैं। इन आगतों पर किए गए खर्च को उत्पादन की लागत कहा जाता है। एक फर्म अपनी उत्पादन लागत के आधार पर ही यह निर्णय लेती है कि वस्तु की कितनी मात्रा में पूर्ति करनी है। अर्थशास्त्र में लागत शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया जाता है।
1) वास्तविक लागत 2) अवसर लागत 3) निहित लागत 4) स्पष्ट लागत 5) मौद्रिक लागत
1) वास्तविक लागत
Real Cost
अर्थशास्त्र में वास्तविक लागत की अवधारणा का प्रतिपादन डॉक्टर मार्शल ने किया था। वास्तविक लागत वह लागत है जो उत्पादन के साधनों के स्वामियों द्वारा उनकी सेवाओं की पूर्ति करने में कष्ट, दुख, परेशानी आदि के रूप में उठानी पड़ती है।
मार्शल के शब्दों में, “किसी वस्तु के उत्पादन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लगे हुए विभिन्न प्रकार के श्रम तथा इसे तैयार करने में लगी पूंजी के लिए बचत करने के लिए आवश्यक उपभोग स्थगन अथवा प्रतीक्षाओं में निहित सभी प्रयत्न तथा त्याग मिलकर उस वस्तु की वास्तविक लागत कहलाएगी।”
संक्षेप में, वास्तविक लागत को किसी वस्तु के उत्पादन के लिए उठाए गए कष्ट त्याग तथा प्रय
त्नों के रूप में व्यक्त किया जाता है। उदाहरण के लिए एक कुम्हार को मिट्टी के बर्तन बनाने में 8 घंटे का परिश्रम करना पड़ता है तो 8 घंटे का परिश्रम उस बर्तन की वास्तविक लागत कहलाएगी। वास्तविक लागत की धारणा भाववाचक धारणा है। इसे मापना संभव नहीं है। इसलिए वर्तमान में इस धारणा को अधिक महत्व नहीं दिया जाता।
2) अवसर लागत
Opportunity Cost
अवसर लागत की धारणा लागत की आधुनिक अवधारणा है। किसी साधन की अवसर लागत से अभिप्राय दूसरे सर्वश्रेष्ठ वैकल्पिक प्रयोग में उसके मूल्य से है।
इस धारणा के अनुसार जब किसी एक वस्तु के उत्पादन में साधनों का प्रयोग किया जाता है तो अन्य वस्तुओं की उन मात्राओं का त्याग करना पड़ता है जिनके उत्पादन लिए साधन सहायक होते हैं।
उदाहरण के लिए एक किसान के खेत में गेहूं तथा चना दोनों फसलें पैदा कर सकता है। यदि वह केवल गेहूं का उत्पादन करता है तो उसे चने का त्याग करना पड़ेगा। इसी तरह यदि वह चने का उत्पादन करता है तो गेहूं का त्याग करना पड़ेगा। यही त्याग अर्थशास्त्र में अवसर लागत कहलाता है।
संक्षेप में, अवसर लागत से अभिप्राय किसी साधन के दूसरे सर्वश्रेष्ठ वैकल्पिक प्रयोग के अवसर का त्याग करना अर्थात अवसर लागत अवसर का त्याग करना होती है।
3) स्पष्ट लागतें
Explicit Cost
एक फर्म द्वारा किए जाने वाले वह सब खर्चे जिनका भुगतान दूसरों को किया जाता है, स्पष्ट लागतें कहलाती हैं। अन्य शब्दों में स्पष्ट लागतें वह लागतें हैं जो फ़र्मे साधनों की सेवाओं को खरीदने या किराए पर लेने के लिए खर्च करती हैं। एक फर्म द्वारा दी जाने वाली मजदूरी, कच्चे माल का भुगतान, ऋणों पर दिया जाने वाला ब्याज व घिसावट पर किए जाने वाले खर्च आदि स्पष्ट लागतें कहलाती है।
लेफ़्टविच के अनुसार, “स्पष्ट लागतें वे नगद भुगतान है जो फर्मों द्वारा बाहरी व्यक्तियों को उनकी सेवाओं तथा वस्तुओं के लिए किए जाते हैं।”
4) निहित लागतें
Implicit Costs
निहित लागतें उद्यमियों के अपने साधनों की अवसर लागत होती है। यद्यपि उद्यमियों को इसके लिए दूसरों को भुगतान नहीं करना पड़ता, परंतु इनका वैकल्पिक कार्यों में प्रयोग नहीं कर पाने के कारण उद्यमियों को जो हानि उठानी पड़ती है, वह निहित लागत के बराबर होती है।
एक उद्यमी की अपनी पूंजी का ब्याज, अपनी भूमि का लगान, अपने श्रम की मजदूरी तथा उद्यम के लिए अपने कार्य के लिए मिलने वाले सामान्य लाभ निहित लागतों में शामिल होते हैं। अन्य शब्दों में ये लागतें स्वयं के स्वामित्व एवं स्वयं के द्वारा लगाए गए साधनों की लागतें हैं।
लेफ़्टविच के अनुसार, “उत्पादन के निहित लागतें स्वयं के स्वामित्व एवं स्वयं के द्वारा लगाए गए साधनों की लागतें है।”
5) मौद्रिक लागत
Money Cost
किसी वस्तु का उत्पादन तथा बिक्री करने के लिए मुद्रा के रूप में जो धन खर्च करना पड़ता है उसे उस वस्तु की मौद्रिक लागत कहते हैं। मौद्रिक लागत से अभिप्राय उस खर्च से है जो एक निश्चित मात्रा में उत्पादन करने के लिए साधनों को खरीदने या किराए पर लेने के लिए किया जाता है।
अर्थशास्त्री मौद्रिक लागत में निम्नलिखित खर्च को शामिल करते हैं-
कच्चे माल की कीमत, ब्याज, लगान, मजदूरी, बिजली आदि का खर्च, घिसावट, विज्ञापन का खर्च, बीमा, पैकिंग, परिवहन पर किया जाने वाला खर्च एवं सामान्य लाभ।
जे. एल. हेन्सन के शब्दों में, “किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के लिए उत्पादन के साधनों को जो समस्त मौद्रिक भुगतान करना पड़ता है, उसे मौद्रिक उत्पादन लागत कहते हैं।”
कुल लागत औसत लागत तथा सीमांत लागत की धारणाएं
Concepts of Total Cost, Average Cost and Marginal Cost
a) कुल लागत
Total Cost-TC
किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के लिए जो कुल धन व्यय करना पड़ता है, उसे कुल लागत कहते हैं। उदाहरण के लिए यदि 500 कापियों का उत्पादन करने के लिए कुल ₹2000 खर्च करना पड़ता है तो 500 कॉपियों की कुल लागत ₹2000 होगी।
डूले के अनुसार, “उत्पाद के एक निश्चित स्तर का उत्पादन करने के लिए जितने कुल खर्च करने पड़ते हैं, उनके जोड़ों को कुल लागत कहते हैं।”
अल्पकाल में कुल लागत दो प्रकार की हो सकती है-
1) बंधी लागत 2) परिवर्ती या परिवर्तनशील लागत।
अर्थात
कुल लागत = कुल बंधी लागत + कुल परिवर्ती/परिवर्तनशील लागत
Total Cost (TC) = Total Fixed Cost (TFC) + Total Variable Cost (TVC)
1) बंधी या अचल या पूरक लागतें-
Fixed or Supplementary Costs
अल्पकाल में स्थिर साधनों की लागत को बंधी लागत कहा जाता है।
एनातोल मुराद के अनुसार, “बंधी लागतें वे लागतें हैं जिनमें उत्पादन की मात्रा में होने वाले परिवर्तन के साथ परिवर्तन नहीं होता।”
यह लागतें उत्पादन की मात्रा के साथ परिवर्तित नहीं होती। उत्पादन शून्य हो या अधिकतम हो, बंधी लागत स्थिर ही रहती हैं। उदाहरण के लिए एक कंपनी उत्पादन के लिए एक मशीन ₹50000 प्रतिमाह किराए पर लेती है। यदि उत्पादन की शून्य इकाई बनाई जाएं या अधिकतम इकाई बनाई जाए तो यह किराया₹50000 ही रहता है। इस पर उत्पादन की मात्रा कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इन्हें पूरक लागतें या अप्रत्यक्ष लागतें भी कहा जाता है। बंधी लागतों में निम्नलिखित लागतों को खर्चों को शामिल किया जाता है-
किराया, स्थाई कर्मचारियों का वेतन, पूंजी का ब्याज, लाइसेंस फीस आदि
बंधी लागतों को निम्न तालिका तथा चित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
उत्पादन की मात्रा
|
बंधी लागत (₹)
|
0
|
10
|
1
|
10
|
2
|
10
|
3
|
10
|
4
|
10
|
5
|
10
|
6
|
10
|
तालिका से ज्ञात होता है कि उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन आने पर बंधी लागतों में कोई अंतर नहीं आता है। उत्पादन की मात्रा शून्य होने पर भी बंधी लागत ₹10 ही बनी रहती है। यदि उत्पादन की मात्रा बढ़ कर दो, चार या छह इकाइयां हो जाती हैं तो भी बंधी लागत ₹10 ही रहती हैं।
Fixed Cost |
रेखाचित्र में OX अक्ष पर उत्पादन तथा OY अक्ष पर कुल बंधी लागत को दर्शाया गया है। TFC रेखा बंधी लागतों को प्रकट कर रही है। यह रेखा OX अक्ष के समानांतर है। इससे प्रकट होता है कि यह लागत स्थिर रहती है। चाहे उत्पादन शून्य हो या अधिकतम।
2) परिवर्तनशील या परिवर्ती या प्रमुख लागतें
Variable Costs or Prime Costs
परिवर्तनशील लागत वे लागतें हैं जो उत्पादन के घटते-बढ़ते साधनों के लिए खर्च करनी पड़ती हैं।
डूले के अनुसार, “परिवर्तनशील लागत वह लागत है जो उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने पर परिवर्तित होती हैं।”
उत्पादन में परिवर्तन आने से इन लागतों में भी परिवर्तन आता है। उत्पादन कम हो तो यह लागतें कम हो जाती हैं और उत्पादन बढ़ने पर यह लागतें बढ़ जाती हैं और शून्य उत्पादन पर यह लागत भी शून्य हो जाती हैं। इन लागतों को प्रमुख लागतें या प्रत्यक्ष लागतें या घटती-बढ़ती लागत भी कहा जाता है।
परिवर्तनशील लागतों में निम्नलिखित खर्चों को शामिल किया जाता है-
कच्चे माल पर किए जाने वाले खर्च, अस्थाई कर्मचारियों की मजदूरी, चालक शक्ति जैसे बिजली का खर्च, टूट–फूट आदि।
परिवर्तनशील लागतों को निम्न तालिका तथा रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
उत्पादन की मात्रा
|
परिवर्तनशील लागत (₹)
|
0
|
0
|
1
|
10
|
2
|
18
|
3
|
24
|
4
|
28
|
5
|
32
|
6
|
38
|
तालिका से ज्ञात होता है कि जैसे–जैसे उत्पादन की मात्रा बढ़ रही है, परिवर्तनशील लागत भी बढ़ रहे हैं। जब उत्पादन शून्य था तो परिवर्तनशील लागतें भी शून्य थी। इसके विपरीत जैसे–जैसे उत्पादन बढ़ता जाता है, परिवर्तनशील लागतें भी बढ़ती जाती हैं।
Variable Cost |
रेखाचित्र में OX अक्ष पर उत्पादन की मात्रा तथा OY अक्ष पर परिवर्ती लागतें प्रस्तुत की गई है। TVC परिवर्तनशील लागत वक्र है। यह ऊपर की ओर उठ रहा है। इससे पप्रकट होता है कि जैसे–जैसे उत्पादन की मात्रा बढ़ रही है, परिवर्तनशील लागत बढ़ती जाती हैं।
बंधी लागत तथा परिवर्तनशील या परिवर्ती लागत में अंतर
बंधी तथा परिवर्तनशील लागत में मुख्य अंतर निम्नलिखित है।
बंधी लागतें
|
परिवर्तनशील लागतें
|
बंधी लागत वह लागत है जिसमें उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने के साथ परिवर्तन नहीं होता।
|
परिवर्तनशील लागत वह लागत है जिसमें उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने के साथ परिवर्तन होता है।
|
उत्पादन शून्य हो या अधिकतम हो, बंधी लागत स्थिर रहती हैं।
|
उत्पादन शून्य होने पर यह लागतें शून्य हो जाती हैं। उत्पादन बढ़ने पर यह लागतें बढ़ती जाती हैं तथा कम होने पर कम होती हैं।
|
उदाहरण किराया, स्थायी कर्मचारियों का वेतन, लाइसेंस फीस, प्लांट एवं मशीनरी की लागत।
|
उदाहरण कच्चे माल की लागत अस्थाई कर्मचारियों का वेतन, बिजली का व्यय आदि।
|
यहां यह ध्यान रखने योग्य बात है कि बंधी लागत तथा परिवर्तनशील लागत का अंतर केवल अल्पकाल में ही होता है। दीर्घकाल में उत्पादन के सभी साधन परिवर्तनशील हो जाते हैं। इसलिए सभी लागतें परिवर्तनशील हो जाती हैं।
कुल लागत, बंधी लागत तथा परिवर्तनशील लागतों का संबंध
Relation between Total cost, Fixed Cost and Variable Cost
अल्पकाल में उत्पादन के विभिन्न स्तरों के लिए बंधी लागत तथा परिवर्तनशील लागत के जोड़ को कुल लागत कहा जाता है।
हालैण्ड के अनुसार, “अल्पकालीन कुल लागत बंधी लागत तथा परिवर्तनशील लागत का जोड़ है।”
बंधी, परिवर्तनशील तथा कुल लागत के संबंध को निम्न तालिका वह रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
उत्पादन की मात्रा
|
कुल बंधी लागत (₹)
TFC
|
कुल परिवर्तनशील लागत (₹)
TVC
|
कुल लागत
TC
|
0
|
10
|
0
|
10
|
1
|
10
|
10
|
20
|
2
|
10
|
18
|
28
|
3
|
10
|
24
|
34
|
4
|
10
|
28
|
38
|
5
|
10
|
32
|
42
|
6
|
10
|
38
|
48
|
तालिका में कुल लागत का अनुमान बंधी लागतों और परिवर्तनशील लागतों के जोड़ द्वारा लगाया गया है। उत्पादन की मात्रा बढ़ने के साथ–साथ कुल लागतें भी बढ़ती जा रही हैं, जब उत्पादन शून्य है, तब भी कुल लागत ₹0 है। इसका अभिप्राय यह है कि भले ही उत्पादन की मात्रा शून्य हो, फिर भी बंधी लागतें 0 नहीं होती।
Relation between TC, TFC and TVC |
रेखाचित्र में OX अक्ष पर उत्पादन तथा OY अक्ष पर लागत को प्रकट किया गया है। TFC बंधी लागत वक्र है। TVC परिवर्तनशील लागत वक्र है तथा TC कुल लागत वक्र है। कुल लागत वक्र(TC) , TFC तथा TVC के जोड़ अर्थात (TC=TFC+TVC) को प्रकट कर रहा है। कुल लागत वक्र (TC) और कुल परिवर्तनशील लागत (TVC) का अंतर समान रहता है । यह अंतर कुल बंधी लागतों (TFC) को प्रकट करता है। TC वक्र हमेशा TVC के ऊपर रहता है।
b) औसत लागत
Average Cost
किसी वस्तु की प्रति इकाई लागत को औसत लागत कहा जाता है।
फर्ग्यूसन के अनुसार,“कुल लागत को उत्पादन की मात्रा से भाग देने पर औसत लागत ज्ञात होती है।”
डूले के अनुसार, “औसत लागत प्रति इकाई उत्पादन लागत है।”
अर्थात
औसत लागत = कुल लागत/उत्पादन की मात्रा या इकाइयाँ
Average Cost (AC) = Total Cost (TC)/Q
मान लीजिए किसी वस्तु के 5 इकाइयों की कुल लागत ₹100 है तो प्रति इकाई लागत या औसत लागत 100/5=₹20 होगी।
अल्प काल में औसत लागत के घटक
अल्पकाल में औसत लागत के दो घटक होते हैं-
i) औसत बंधी लागत
ii) औसत परिवर्तनशील लागत।
i) औसत बंधी लागत
Average fixed Cost
औसत बंधी लागत प्रति इकाई बंधी लागत है। इसका अनुमान कुल बंधी लागत को उत्पादन की मात्रा से भाग देने पर लगाया जाता है।
अर्थात
औसत बंधी लागत = कुल बंधी लागत/उत्पादन की मात्रा या इकाइयाँ
Average Fixed Cost (AFC) = Total Fixed Cost (TFC)/Q
औसत बंधी लागत की व्याख्या हम निम्न तालिका और रेखाचित्र की सहायता से कर सकते हैं-
उत्पादन की मात्रा
|
बंधी लागत (₹)
TFC
|
औसत बंधी लागत
AFC
|
0
|
10
|
–
|
1
|
10
|
10
|
2
|
10
|
5
|
3
|
10
|
3.3
|
4
|
10
|
2.5
|
5
|
10
|
2
|
6
|
10
|
1.7
|
7
|
10
|
1.4
|
तालिका से ज्ञात होता है कि जब एक इकाई का उत्पादन किया जाता है तो औसत बंधी लागत ₹10 है। इसके विपरीत जब 5 इकाइयों का उत्पादन किया जाता है तो औसत बंधी लागत कम हो कर ₹2 हो जाती है। औसत बंधी लागत उत्पादन में होने वाली वृद्धि के साथ घटती जाती है। परन्तु यह कभी भी शून्य नहीं होती।
Average Fixed Cost |
रेखाचित्र में OX अक्ष पर उत्पादन तथा OY अक्ष पर औसत बंधी लागत दर्शाई गई है। AFC रेखा औसत बंधी लागत को प्रकट कर रही है। यह रेखा दाहिनी तरफ नीचे की ओर निरंतर झुकती जा रही है। औसत बंधी लागत वक्र के नीचे की तरफ गिरने की प्रवृत्ति से यह स्पष्ट है कि यह OX को कहीं ना कहीं अवश्य स्पर्श करेगा, परंतु ऐसा संभव नहीं है। AFC वक्र कभी भी OX अक्ष को नहीं छूता है। क्योंकि कुल बंधी लागतें कभी भी शून्य नहीं होती। इस वजह से औसत बंधी लागत निरंतर घटती जाती है। परंतु यह कभी शून्य नहीं होती।
AFC वक्र को रेक्टैंगुलर हाइपरबोला (Rectangular Hyperbola) कहा जाता है।
इसका अभिप्राय यह है कि AFC वक्र के किसी भी बिंदु के मूल्य को यदि हम उत्पादन की मात्रा के साथ गुणा करें तो जो गुणनफल प्राप्त होगा ठीक उतना ही गुणनफल किसी अन्य बिंदु पर उसके मूल्य को उत्पादन की मात्रा से गुणा करके भी प्राप्त होगा।
ii) औसत परिवर्तनशील या परिवर्ती लागत
Average Variable Cost
औसत परिवर्तनशील लागत प्रति इकाई परिवर्तनशील लागत है। इसका अनुमान कुल परिवर्तनशील लागत को उत्पादन की मात्रा से भाग देकर लगाया जाता है।
अर्थात
औसत परिवर्तनशील लागत = कुल परिवर्तनशील लागत/उत्पादन की मात्रा या इकाइयाँ
Average Variable Cost (AVC) = Total Variable Cost (TVC)/Q
औसत परिवर्तनशील लागत की व्याख्या निम्न तालिका व रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट की जा सकती है-
उत्पादन की मात्रा
|
कुल परिवर्तनशील लागत (₹)
TVC
|
औसत परिवर्तनशील लागत
AVC
|
0
|
0
|
0
|
1
|
10
|
10
|
2
|
18
|
9
|
3
|
24
|
8
|
4
|
28
|
7
|
5
|
32
|
6.4
|
6
|
38
|
6.3
|
7
|
46
|
6.6
|
8
|
62
|
7.7
|
तालिका से स्पष्ट है कि उत्पादन के बढ़ने पर औसत परिवर्तनशील लागत छठी इकाई तक कम हो रही है परंतु सातवीं इकाई से बढ़नी शुरू हो जाती है। इसका कारण यह है कि उत्पादन के आरंभ में उत्पादन के बढ़ते प्रतिफल का नियम लागू होता है। इसलिए औसत परिवर्तनशील लागत कम होती जाती है। परंतु एक सीमा के पश्चात घटते प्रतिफल का नियम लागू होने लगता है। इसलिए यह लागतें बढ़ने लगती हैं।
Average variable Cost |
रेखाचित्र में OX अक्ष पर उत्पादन की मात्रा तथा OY अक्ष पर औसत परिवर्तनशील लागत प्रकट की गई है। AVC वक्र की आकृति अंग्रेजी भाषा के ‘U’ अक्षर की तरह होती है। पहले यह वक्र छह इकाइयों तक नीचे की ओर गिर रहा है। इसका अभिप्राय है कि उत्पादन की मात्रा बढ़ने पर औसत परिवर्तनशील लागत कम हो रही है। सातवीं इकाई से यह वक्र ऊपर की ओर उठना आरम्भ कर देता है। इसका कारण घटते प्रतिफल के नियम लागू होना हैं।
परिवर्तनशील लागत वक्र का ‘U’ आकार का होना घटते-बढ़ते अनुपात के नियम पर निर्भर करता है। किसी वस्तु के उत्पादन की प्रारंभिक अवस्था में औसत परिवर्तनशील लागतें कम होती हैं। इसके बाद वे समान हो जाती हैं और अंत में बढ़ने लगती हैं। इस वजह से इन परिवर्तनशील लागतों का आकार ‘U’ आकार का हो जाता है।
औसत लागत वक्र यू आकार की क्यों होती है?
Why is the Average Cost Curve ‘U’ shaped?
अल्पकालीन औसत वक्र यू (U) आकार की होती है। इसका अभिप्राय यह है कि यह वक्र पहले नीचे की ओर गिरती है। इसके पश्चात एक न्यूनतम बिंदु पर पहुंचने के बाद फिर ऊपर उठने लगती है। औसत लागत वक्र के ‘U’ आकार होने की व्याख्या निम्न तीन बिंदुओं से की जा सकती है-
i) औसत बंधी लागत तथा औसत परिवर्तनशील लागत का आधार
औसत लागत (AC) वक्र, औसत बंधी लागत (AFC) तथा औसत परिवर्तनशील लागत (AVC) का जोड़ है। उत्पादन में जैसे–जैसे वृद्धि होती है, औसत बंधी लागत घटती जाती है। औसत परिवर्तनशील लागत शुरू में कम होती है। इसलिए आरंभ औसत लागत भी घटती जाती है। इसके पश्चात न्यूनतम बिंदु पर पहुंच कर पुनः बढ़ना आरंभ कर देती है।
ii) घटते बढ़ते अनुपात के नियम का आधार
उत्पादन प्रक्रिया के आरंभ में जब एक बंधे साधन के साथ परिवर्तनशील साधनों का प्रयोग किया जाता है तो बंधे साधन का अधिक कुशलतापूर्वक प्रयोग होने लगता है। इसकी वजह से कारक के बढ़ते प्रतिफल प्राप्त होते हैं और औसत लागत कम होने लगती है। एक सीमा के पश्चात साधनों के समान प्रतिफल और घटते प्रतिफल के नियम लागू होने के कारण प्रति इकाई उत्पादन की लागत बढ़ती जाती है। इस वजह से औसत लागत वक्र भी ऊपर की ओर उठने लगती है। संक्षेप में उत्पादन के घटते प्रतिफल या बढ़ती लागत का नियम लागू होने की वजह से औसत लागत वक्र ‘U’ आकार की होती है।
iii) आन्तरिक किफायतों/बचतों तथा हानियों का आधार
एक फर्म को अल्पकाल में उत्पादन के प्रारंभ में कई प्रकार की आंतरिक किफायतें प्राप्त होती हैं जैसे तकनीकी किफायतें, बिक्री सम्बन्धी किफायतें आदि। इनके कारण फर्म की औसत लागत कम होने लगती है, और औसत लागत वक्र नीचे की और गिरता है। परन्तु उत्पादन की एक सीमा के पश्चात फर्मों को आंतरिक हानियों जैसे प्रबंध की कठिनाई तथा तकनीकी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसके फलस्वरूप औसत लागत बढ़ने लगती है और औसत लागत वक्र ऊपर की ओर उठना आरम्भ कर देता है और ‘U’ आकार का हो जाता है।
c) सीमांत लागत
Marginal Cost
किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने से कुल लागत में जो अंतर आता है उसे सीमांत लागत कहते हैं।
अर्थात
सीमांत लागत = कुल लागत (n इकाइयों पर) – कुल लागत (n-1 इकाइयों पर)
Marginal Cost (MC) = TCn-TCn-1
OR
MC=ΔTC/ΔQ
फर्ग्यूसन के अनुसार, “उत्पादन में एक इकाई की वृद्धि करने से लागत में जो वृद्धि होती है, उसे सीमांत लागत कहते हैं।”
उदाहरण के लिए 5 वस्तुओं के उत्पादन की कुल लागत ₹100 है तथा 6 वस्तुओं के उत्पादन की कुल लागत ₹115 है। छठी इकाई की सीमांत लागत 115 – ₹15 होगी।
सीमांत लागत की व्याख्या निम्न तालिका व रेखाचित्र की सहायता से की जा सकती है–
उत्पादन की मात्रा
|
बंधी लागत (₹)
TFC
|
परिवर्तनशील लागत (₹)
TVC
|
कुल लागत
TC
|
सीमांत लागत
(MC)
|
0
|
10
|
0
|
10
|
–
|
1
|
10
|
10
|
20
|
10
|
2
|
10
|
18
|
28
|
8
|
3
|
10
|
24
|
34
|
6
|
4
|
10
|
28
|
38
|
4
|
5
|
10
|
32
|
42
|
4
|
6
|
10
|
38
|
48
|
6
|
7
|
10
|
46
|
56
|
8
|
तालिका से स्पष्ट है कि पहली इकाई का उत्पादन करने से कुल लागत ₹20 आती है। अतएव पहली इकाई की सीमांत लागत ₹10 होगी। दूसरी इकाई की सीमांत लागत 28 – 20 ₹8 होगी। इसी तरह अन्य इकाइयों की सीमांत लागत ज्ञात की जा सकती है।
आरंभ में प्रत्येक अतिरिक्त इकाई लगाने से पहले घटती हुई सीमांत लागत प्राप्त होती है, परंतु उत्पादन की छठी इकाई से सीमांत लागत पढ़ना आरंभ कर देती है। इसका कारण घटते प्रतिफल के नियम या बढ़ती लागत का नियम लागू होना है।
Marginal Cost |
रेखाचित्र में OX अक्ष पर उत्पादन तथा OY अक्ष पर सीमांत लागत को दर्शाया गया है। आरंभ में सीमांत लागत वक्र नीचे की ओर गिरता है। इसका अर्थ है कि प्रति इकाई सीमांत लागत घट रही है, परंतु न्यूनतम बिंदु पहुंचने के पश्चात यह ऊपर उठना आरंभ कर देती है और ‘U’ आकार की हो जाती है। इसका कारण यह कारक के घटते प्रतिफल के नियम या बढ़ती लागत का नियम लागू होना है।
यहां यह बात ध्यान रखने योग्य है कि सीमांत लागत केवल परिवर्ती लागत होती है। इसलिए सीमांत लागत का अनुमान कुल लागत के साथ–साथ कुल परिवर्तनशील लागत के आधार पर भी लगाया जा सकता है।
अर्थात
Marginal Cost (MC) = TCn-TCn-1
या
Marginal Cost (MC) = TVCn-TVCn-1
इसी तरह सीमांत लागत की सहायता से कुल परिवर्तनशील लागत (TVC) का भी अनुमान लगाया जा सकता है-
TVC= ΣMC
इसका अर्थ यह है कि यदि हम सीमांत लागत को क्रमशः जोड़ते जाये तो हमे कुल परिवर्तनशील लागत प्राप्त हो जाएगी।
औसत लागत तथा सीमांत लागत में संबंध
1) औसत लागत तथा सीमांत लागत दोनों का अनुमान कुल लागत से लगाया जाता है।
औसत लागत तथा सीमांत लागत दोनों ही कुल लागत की सहायता से ज्ञात की जा सकती है। औसत लागत का अनुमान उत्पादन की मात्रा से भाग देने पर लगाया जा सकता है।
Average Cost (AC) = Total Cost (TC)/Q
इसी प्रकार सीमांत लागत का अनुमान भी कुल लागत से लगाया जा सकता है। उत्पादन की एक अतिरिक्त इकाई को उत्पादन करने से कुल लागत में जो परिवर्तन होता है, उसे सीमांत लागत कहते हैं। अतः सीमांत लागत निम्न सूत्र से ज्ञात की जा सकती है-
Marginal Cost (MC) = TCn-TCn-1
2) औसत लागत के घटने पर सीमांत लागत भी घटती है।
औसत लागत के घटने पर सीमांत लागत भी घटती जाती है। इस अवस्था में सीमांत लागत, औसत लागत की अपेक्षा अधिक तेजी से कम होती है। अर्थात सीमांत लागत वक्र गिरने की अवस्था में औसत लागत वक्र के नीचे होती है।
Relation between AC and MC |
रेखाचित्र से स्पष्ट है कि जब औसत लागत घटती है तो MC वक्र, AC वक्र के नीचे होता है।
3) औसत लागत के बढ़ने पर सीमांत लागत भी बढ़ती है।
जब औसत लागत बढ़ती है तो सीमांत लागत भी बढ़ती है। परंतु सीमांत लागत में वृद्धि औसत लागत की तुलना में अधिक तेजी से होती है। अर्थात इस दशा में सीमांत लागत वक्र, औसत लागत वक्र से ऊपर होता है।
Relation between AC and MC, economics online class |
रेखाचित्र से स्पष्ट है कि उस लागत बढ़ने पर लागत बढ़ती है और परंतु सीमांत लागत में वृद्धि होती है।
4) सीमांत लागत वक्र औसत लागत वक्र को उसके न्यूनतम बिंदु पर काटती है।
रेखाचित्र से ज्ञात होता है कि बिंदु E औसत लागत वक्र का न्यूनतम बिंदु है तथा सीमांत लागत वक्र उसे E बिंदु पर काट रही है। परंतु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सीमांत लागत का न्यूनतम बिंदु F, औसत लागत की न्यूनतम बिंदु E से पहले आता है।
MC cuts AC on minimum Point |
5) MC वक्र, AC वक्र तथा AVC दोनों वक्रों को उनके न्यूनतम बिंदु पर काटती हैं।
AC, AFC,AVC, MC Curve |
कुल लागत तथा सीमांत लागत में संबंध
1) सीमांत लागत की गणना दो इकाइयों के कुल लागत के अंतर द्वारा ज्ञात की जा सकती है।
2) जब कुल लागत घटती दर से बढ़ती है तो सीमांत लागत घटती है।
3) जब कुल लागत में वृद्धि बंद हो जाती है तो सीमांत लागत न्यूनतम होती है।
4) जब कुल लागत में बढ़ती दर से वृद्धि होती है तो सीमांत लागत बढ़ती है।
सीमांत लागत तथा औसत परिवर्ती लागत में संबंध
🔹जब MC < AVC , AVC घटता है ।
🔹जब MC = AVC , AVC न्यूनतम तथा स्थिर होता है ।
🔹 जब MC > AVC , AVC बढ़ता है ।
सीमांत लागत तथा औसत लागत में संबंध
🔹जब MC < AC , AC घटता है ।
🔹 जब MC = AC , AC न्यूनतम तथा स्थिर होता है ।
🔹 जब MC > AC , AC बढ़ता है ।
दीर्घकालीन कुल लागत वक्र
Long Run Total Cost Curve-LTCC
चूँकि दीर्घकाल में सभी साधन परिवर्तनशील होते हैं, इसलिए परिवर्तनशील लागतों और बंधी लागतों में कोई भेद नही रहता। दीर्घकाल में सभी लागतें परिवर्तनशील होती हैं, इसलिए दीर्घकालीन कुल लागत वक्र (LTCC) का आकार ठीक वैसा ही होता है जैसा अल्पकालीन कुल लागत वक्र का होता है।
इसे निम्न रेखाचित्र से समझा जा सकता है-
Long Term Cost Curve |
रेखाचित्र से स्पष्ट है कि बिंदु A तक LTCC घटती दर पर बढ़ रहा है। इसका कारण बढ़ते प्रतिफल के नियम का लागू होना है। बिंदु A के बाद LTCC वक्र बढती दर पर बढ़ना शुरू कर देता है। इसका कारण घटते प्रतिफल का नियम या बढती लागत का नियम लागू होना है।
समय तत्व तथा लागत
Time Element and Cost
1) अति अल्पकाल (Very Short Period)
अति अल्प काल को बाजार-काल कहा जाता है। यह समय अवधि इतनी कम होती है कि उत्पादन को बढ़ाना संभव नहीं होता। पूर्ति के स्थिर रहने के कारण पूर्ति पूर्णतया बेलोचदार होती है। इसलिए इस बात का कोई महत्व नहीं रहता कि उत्पादक वस्तु की लागत प्राप्त कर पाता है या नहीं।
2) अल्पकाल (Short Period)
अल्पकाल समय कि वह अवधि है जिसमें पूर्ति को केवल वर्तमान उत्पादन क्षमता तक बढ़ाया जा सकता है। इसलिए फर्म को कम से कम परिवर्तनशील लागत अवश्य मिलनी चाहिए। अल्पकाल में फर्म कीमत के कम होने पर बंधी लागत का घाटा तो उठा सकती है। परंतु यदि कीमत इतनी कम हो जाए कि परिवर्तनशील लागत काफी घाटा होने लगता है तो वह उत्पादन बंद कर दे देगी। इसे अर्थशास्त्र में उत्पादन बंद बिंदु (Shut Down Point) कहते हैं।
3) दीर्घकाल (Long Period)
दीर्घकाल समय की वह अवधि है जिसमें पूर्ति पूर्णतया लोचदार होती है अर्थात उसे मांग के अनुसार कम या अधिक किया जा सकता है। नई फर्में उद्योग में प्रवेश कर सकती हैं। पुरानी परम उद्योग को छोड़ सकती है। वर्तमान फर्म नया प्लांट लगा सकती है। समय की इस अवधि में फर्मों को कुल लागत मिलनी चाहिए अन्यथा वे उत्पादन बंद कर देंगी। वास्तव में दीर्घकाल में सभी लागतें परिवर्तनशील लागतें होती हैं। इसलिए उत्पादक सभी लागतें नियंत्रित कर सकते हैं। अतएव उन्हें कुल लागत अवश्य प्राप्त होनी चाहिए। दीर्घकाल को सामान्य काल भी कहा जाता है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अति अल्पकाल या बाजार-काल में इस बात का कोई विशेष महत्व नहीं होता कि उत्पादक को लागत प्राप्त हो सकेगी अथवा नहीं, परंतु अल्पकाल में उत्पादक को कम से कम परिवर्तनशील लागत अवश्य मिलनी चाहिए। अन्यथा वह उत्पादन बंद कर देगा। दीर्घकाल में उत्पादकों पूरी लागत प्राप्त होनी चाहिए।
विद्यार्थियों के लिए विशेष:
- कुल लागत= बंधी लागत+परिवर्तनशील लागत
- औसत लागत = कुल लागत ÷ उत्पादन की इकाइयाँ
- औसत बंधी लागत= बंधी लागत ÷ उत्पादन की इकाइयाँ
- औसत परिवर्तनशील लागत = परिवर्तनशील लागत ÷ उत्पादन की इकाइयाँ
- सीमांत लागत = कुल लागत(n इकाइयों पर) – कुल लागत(n-1 इकाइयों पर)