ब्रिटिश शासन स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

ब्रिटिश शासन

ब्रिटिश शासन का मूल उद्देश्य :- भारत में ब्रिटिश शासन का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के विकास के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को फीडर अर्थव्यवस्था के रूप में उपयोग करना था। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया। उन्होंने अपने देश के  विकास के लिए भारत के प्राकृतिक और मानव संसाधनों का शोषण किया। अंतत: 200 साल के ब्रिटिश शासन के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत को उनसे आजादी मिली।

ब्रिटिश शासन के आगमन से पहले की भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएं:

समृद्ध अर्थव्यवस्था :- भारत एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और समृद्ध अर्थव्यवस्था थी ।

कृषि अर्थव्यवस्था:- कृषि अधिकांश लोगों के लिए आजीविका का मुख्य स्रोत था और इसमें कुल आबादी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा लगा हुआ  था ।

प्रसिद्ध हस्तशिल्प उद्योग:-  भारत को सूती और रेशमी वस्त्रों, धातु और कीमती पत्थरो  के  हस्तशिल्प उद्योगों के लिए भी जाना जाता था। हस्तशिल्प उत्पाद दुनिया भर के  बाजार में अच्छी गुणवत्ता और उसे बनाने में प्रयोग  की जाने वाली अच्छी  सामग्री की के कारण प्रसिद्ध था।

स्वतंत्रता के समय कृषि  क्षेत्र:-

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत की कुल कार्यशील  जंनसंख्या का 85 प्रतिशत  भाग कृषि  क्षेत्र में कार्य कर रहा था लेकिन फिर भी कृषि  की स्थिति काफी दयनीय थी। जिसके निम्न कारण थे:-
1. उत्पादन का स्तर काफी निम्न था क्योंकि  उत्पादन के साधन खराब थे, रसायन पदार्थो का
नाममात्र प्रयोग किया जाता था ।
2. समस्त उत्पादन वर्षा  पर निर्भर करता था इसका अर्थ यह था कि अच्छी वर्षा तो अच्छा उत्पादन और खराब वर्षा  का अर्थ था खराब उत्पादन क्योंकि  सिंचाई का अन्य कोई साधन नहीं था।
3. भूमि पर जंनसंख्या का दबाव अधिक होने से भूमि का उप-विभाजन हुआ जिससे उत्पादकता स्तर में गिरावट आई
4. कृषि  स्वयं  उपभोग के लिए की जाती थी इसका व्यवसायीकरण अधिक नहीं हुआ था।
5. विभाजन के समय सिंचित तथा उपजाऊ भाग पाकिस्तान चला गया जिससे कृषि  उत्पादन पर बुरा प्रभाव पडा।

कृषि की गतिहीनता के कारण:-

(1) भूमि काश्तकारी अथवा राजस्व प्रणाली:- भारत में ब्रिटिश सरकार ने भू-राजस्व की प्रणाली को लागू किया जिसमें सरकार, भू-स्वामी और किसान को रखा गया। इस प्रथा की मुख्य बाते निम्न लिखित हैः-
1. जमींदारों को भूमि का स्थायी मालिक बना दिया गया।
2. जमींदार सरकार को भू-राजस्व के रूप में निश्चित राशि  जमा कराते थें

3. जमींदार दूसरी तरफ किसान से मनमानी राशि  वसूल करते थें और कृषि की स्थिति में सुधार के लिए उन्होंने कभी कुछ नहीं किया।

4 . काश्तकारों के पास कोई स्वामित्व अधिकार नहीं था और इस प्रकार भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए उनमें रुचि नहीं थी।
उपरोक्त कारणों से भू -स्वामियों तथा काश्तकारों के बीच शत्रुता  उत्पन्न हो गई। कई किसानों को जमींदारों ने भू-स्वामित्व से बेदखल कर दिया और वे भूमिहीन श्रमिकों का जीवन व्यतीत करने लगें। इस प्रकार किसानों का कृषि  के प्रति लगाव खत्म हो गया और कृषि  का विनाश  हो गया। अब कृषि  केवल जीवन निर्वाह के लिए कि जाने लगी।
(2) कृषि  का व्यावसायीकरण :- कृषि  के व्यावसायीकरण का अर्थ है कि ‘‘स्व-उपभोग के स्थान पर विक्रय के लिए फसलों का उत्पादन‘‘  ब्रिटिश शासन के दौरान, किसानों को नकदी फसलों (जैसे कपास या जूट) तथा व्यावसायिक फसलों जैसे:- नील आदि के उत्पादन के लिए अधिक कीमत दी जाती थी और उन्हें उत्पादन करने के लिए बाध्य किया जाता था, ताकि वे इन  फसलों को ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल कर सके।
इस प्रकार, ब्रिटिश शासन ने फसलों को खाद्य फसलों से नकदी फसलों में स्थानांतरित करने को बढ़ावा दिया। इससें खाद्य फसलों के उत्पादन में कमी हो गई।
(3)देश  का विभाजन:- सन् 1941 में हुए देश  के विभाजन ने भारत के कृषि उत्पादन पर बुरा प्रभाव डाला पश्चिमी  पंजाब तथा सिंध के उच्च खाद्य उत्पादक क्षेत्र पाकिस्तान में चले गए। यहां तक की जूट उत्पादन का सारा उत्पादक क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान में चला गया। विभाजन के कारण भारत के जूट उद्दोग   पर सबसे अधिक बुरा प्रभाव पडा। विभाजन के बाद उपजाऊ क्षेत्रों के नुकसान ने भारत को खाद्यान्न वस्तुओ  के लिए आयात पर निर्भर बना दिया।
इस प्रकार, भारतीय कृषि  पिछड़ी हुई, गतिहीन तथा ब्रिटिश  शासन काल में निष्क्रिय  हो गई।

स्वतंत्रता के समय औधोगिकरण क्षेत्र:-

स्वतंत्रता के समय औधोगिकरण क्षेत्र पिछडा हुआ था जो निम्न बातों से स्पष्ट  हो रहा है।
1. वि-औधोगिकरण:- अंग्रेजो ने भारत में वि- औधोगिकरण की नीति को अपनाया जिसके निम्नलिखित कारण है:-
(क) भारत से कम अथवा सस्ती दर पर कच्चा माल प्राप्त करना
(ख) इंग्लैण्ड में बनाई गई वस्तुओं को उंची कीमतों पर भारतीय बाजारों में बेचना
इसी के कारण हस्तशिल्प  कला का पतन हुआ। क्योंकि यह वस्तुएं मशीनो  से बनी होती थी जिसमें लागत कम आती थी सस्ती होने के कारण बाजार में इनकी मांग बढी दूसरी तरफ राज दरबारों का अंत होने से हस्तशिल्पकारों  के द्वारा बनी वस्तु की मांग समाप्त हो गई। भारत में अंग्रेजों के आगमन से पहले, पारंपरिक हस्तशिल्प उद्योगों को उनकी गुणवत्ता और शिल्प कौशल के कारण उन्हें दुनिया भर जाना जाता था
2. औधोगिक ढांचा:- भारत में आधुनिक उद्योग बहुत धीमी गति से विकसित हुए 19 वी शताब्दी के आरभ्भ में कुछ सूती और पटसन मिलों की स्थापना की गई। इसके अलावा 1907 में टाटा आयरन तथा स्टील कंपनी की स्थापना की गई। जिससे प्रभावित होकर कुछ चीनी ,सीमेंट तथा कागज बनाने वाली मिलों की भी स्थापना की गई।
3. पूंजीगत वस्तु उद्दोग  का अभाव :-अंग्रेजो  की नीति ऐसे उध्योगो को विकसित करने की थी, जो ब्रिटिश उद्योगो  के प्रतियोगी न हो। वे चाहते थे कि भारतीय पूंजीगत तथा भारी संयत्रों के लिए हमेशा इंग्लैेड पर निर्भर रहें। इसलिए ब्रिटिश  शासन  काल में केवल उपभोक्ता वस्तु उद्योगो  का विकास हुआ।
4. सार्वजनिक क्षेत्र की सीमित क्रियाशीलता :- सार्वजनिक क्षेत्र केवल रेलवे, बिजली उत्पादन, संचार, बंदरगाह तथा कुछ अन्य विभागीय उद्योगो  तक सीमित होकर रह गया।

5. रेलवे की शुरूआत :- इसने देश के विभिन्न हिस्सों में ब्रिटिश उत्पाद को  परिवहन की सुविधा प्रदान की परिणामस्वरूप, ब्रिटिश उत्पाद के बाजार का आकार बड़ा हुआ,  इससे भारत में उद्योग का पतन होता गया 

6 . नए वर्ग का उदय :-ब्रिटिश शासन के कारण, भारत के  लोगों में  एक नए वर्ग का उदय हुआ। इसने भारतीय उत्पादों के खिलाफ और ब्रिटिश उत्पादों के पक्ष में मांग के रूप को बदल दिया। परिणामस्वरूप, भारतीय उद्योग नष्ट हो गए

नोट:- ब्रिटिश  शासन ने यदि हमें कुछ दिया तो वह रेल परिवहन, डाक तार है इसके अलावा उन्होने बंदरगाहों और सडकों का निर्माण भी किया लेकिन इन सब के पीछे उनका निजी स्वार्थ था।

ब्रिटिश शासन के अंतर्गत विदेशी  व्यापार:-

प्राचीन काल में भारत को विदेशी व्यापार में उंचा स्थान प्राप्त था वह बारीक कपास, रेश्मी  कपडा, लोहे की बनी वस्तुएं, हाथी दांत के काम और मूल्यवान वस्तुओं का निर्यातक माना जाता था लेकिन बिट्रिश  शासन ने इसे कच्चे माल का निर्यातक बना दिया और निर्मित माल का आयातक जिसके निम्न कारण थे :-
1. स्वेज नहर खुल जाने के कारण, परिवहन की लागत और  उसमे  लगने वाला समय कम  हो गया और अब भारतीय बाजार तक पहुंचना आसान हो गया जिससे  50 प्रतिशत  से अधिक निर्यात तथा आयात अब केवल भारत तथा ब्रिटेन के बीच होने लगा।
2. प्रशासनिक खर्चो को पूरा करने के लिए भारतीय खजानों का प्रयोग किया गया इससे भारतीय संपति में कमी आने  लगी ।
3. भारत केवल प्रथामिक वस्तुओं कपास, चीनी, नील, पटसन आदि का निर्यातक बना जिससे घरेलू बाजार में इन वस्तु की कमी हो गई।

4 . भारत के विदेशी व्यापार पर ब्रिटिश के एकाधिकार नियंत्रण होने  के कारण ही निर्यात और आयात बड़े पैमाने पर ब्रिटेन तक ही सीमित थे।

5 . भारत को ब्रिटिश उद्योगों के तैयार माल के बाजार के रूप में भी विकसित किया गया था।

ब्रिटिश शासन के सकारात्मक प्रभाव:

1. रेलवे और सडको के निर्माण से आर्थिक और समाजिक विकास के कई नए अवसर प्राप्त हुए।
2. यातायात से भारत में आकाल को रोका गया और सूखाग्रस्त क्षेत्रों में असानी से खाद्य समाग्री पहुचायीं जाने लगी
3. वस्तु प्रणाली की समाप्ती हुई और मुद्रा प्रणाली का जन्म हुआ जिससे विनिमय आसान हो गया।

हस्तशिल्प उद्योग के पतन का कारण :-

भारत के प्रसिद्ध हस्तशिल्प उद्योग के पतन का मुख्य कारण औपनिवेशिक सरकार द्वारा ‘भेदभावपूर्ण टैरिफ नीति’ की शुरुआत थी। इस नीति ने भारत से कच्चे माल के मुफ्त निर्यात और ब्रिटिश उद्योग के अंतिम माल के भारत में मुफ्त आयात की अनुमति दी। लेकिन, भारतीय हस्तशिल्प के निर्यात पर भारी शुल्क लगाया गया था।

नतीजा यह हुआ कि भारतीय बाजार ब्रिटेन के निर्मित  माल से भरे हुए थे जो काफी कम कीमत के थे। दूसरी ओर, शाही दरबारों के समाप्त होने के साथ, हस्तशिल्पियों द्वारा बनाई जाने वाली वस्तुओं की मांग समाप्त हो गई। इससे घरेलू बाजार के साथ-साथ निर्यात बाजार दोनों में भारतीय हस्तशिल्प का पतन हुआ।

ब्रिटिश जनांकिकीय  रूपरेखा:-

  • इस अवधि के दौरान शिशु मृत्यु दर लगभग 218 प्रति हजार थी और जीवन प्रत्याशा केवल 32 वर्ष थी जो स्वास्थ्य सुविधाओं और जागरूकता की कमी को दर्शाता है
  • साक्षरता दर 16 प्रतिशत जबकि स्त्री साक्षरता मात्र 7 प्रतिशत  थी जोकि काफी कम थी, जो देश के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को दर्शाती है।
  • भारत की जनसंख्या के बारे में विवरण पहली बार 1881 में एक जनगणना के माध्यम से एकत्र किया गया था।
  • वर्ष 1921 को ‘महान विभाजन का वर्ष’ के रूप में वर्णित किया गया है। इस वर्ष के बाद से, जनसंख्या में केवल 1.25 करोड़ व्यक्तियों की वृद्धि हुई, जिसमें केवल 0.2 प्रतिशत की वृद्धि दर थी।
  • गरीबी की सीमा के बारे में कोई विश्वसनीय आंकड़े नहीं थे । लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में काफी गरीबी थी।
    उपरोक्त विवरण से सपष्ट  होता है कि समस्त विषेशताएं निर्धनता, स्वास्थ्य सुविधा का अभाव और समाजिक तथा आर्थिक पिछडेपन की निशानी  है।

आजादी के समय आधारिक संरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) की क्या स्थिति थी

1. ब्रिटिश काल में परिवहन और संचार के क्षेत्र में कुछ ढांचागत विकास हुआ था।

पहली बार भारत में रेलवे की शुरुआत, कुछ बंदरगाहों का  निर्माण और कुछ सड़कों के निर्माण का कार्य किया गया जोकि  एक बड़ी सफलता थी।
लेकिन ब्रिटिश सरकार का मुख्य उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में तेजी लाने के बजाय ब्रिटिश सरकार के हितों को बढ़ावा देना था।
वस्तु विनिमय प्रणाली से  मौद्रिक विनिमय प्रणाली में परिवर्तन इसी काल में हुआ , जिससे  श्रम विभाजन और बड़े पैमाने पर उत्पादन की सुविधा मिल पायी 

भारत में अंग्रेजों द्वारा दिया गया सकारात्मक योगदान :-

  1. खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता :- ब्रिटिश सरकार द्वारा शुरू की गई कृषि के व्यावसायीकरण के परिणामस्वरूप खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता आई।
  2. परिवहन के बेहतर साधन :- सड़कों और रेलवे के विकास ने सस्ती और तेज परिवहन व्यवस्था प्रदान की जिससे आर्थिक और सामाजिक विकास के नए अवसर खुल गए ।
  3. अकालों पर रोक: सड़कों और रेलवे ने अकाल के प्रभाव को कम करने का काम किया क्योंकि सूखे की स्थिति में खाद्य आपूर्ति को प्रभावित क्षेत्रों में पहुँचाया जा सकता था।
  4. मौद्रिक अर्थव्यवस्था में बदलाव: ब्रिटिश शासन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को विनिमय की वस्तु विनिमय प्रणाली (वस्तु के लिए वस्तु का आदान-प्रदान) से विनिमय की मौद्रिक प्रणाली में बदलने में मदद की।
  5. प्रभावी प्रशासनिक व्यवस्था :- ब्रिटिश सरकार के पास एक कुशल प्रशासन प्रणाली थी, जो भारतीय राजनेताओं के लिए एक तैयार प्रणाली (रेडी रेकनर) के रूप में कार्य करती थी।

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