औद्योगिक क्षेत्र की भूमिका :- किसी देश के संपूर्ण विकास के लिए औद्योगीकरण महत्वपूर्ण है। निम्नलिखित बिंदु उद्योगो के महत्व को स्पष्ट करते हैं। :-
- उद्योगों के आभाव में आर्थिक संवृद्धि कृषि विकास पर आश्रित रहती है और मनुष्य केवल अनाज तथा मोटे कपड़े जैसी वस्तुओ पर निर्भर रहते है | उद्योगों के विकास से ही विकास की प्रक्रिया में विविधता आती है और लोगो को वे अनेक प्रकार की वस्तुएं जैसे कार, फ्रिज , टीवी आदि उपलब्ध होती है जो हमारे जीवन में आराम तथा विलासिता का एक स्रोत है |
- उद्योग बेरोजगारी जैसी बढ़ी समस्या को हल करने में मदद करते है क्योंकि यह रोजगार के नए अवसर प्रदान करते है जोकि कृषि क्षेत्र में पाए जाने वाले रोजगार से भी अधिक स्थिर होता है |
- उधोगो में मशीनों और नई तकनीकों का प्रयोग किया जाता है और साथ ही जिस जगह ये स्थापित किये जाते है उस क्षेत्र का विकास हो जाता है इसलिए यह आधुनिकीकरण और क्षेत्रीय संतुलन को बढ़ावा देता है |
- यह उत्पादन और उत्पादकता दोनों को बढ़ाते है जिससे जी० डी ० पी का स्तर तेजी से बढ़ता है इस प्रकार यह समाज की आय बढ़ाने में मदद करता है |
- यह कृषि को आधुनिक बनाने में मदद करता है जिससे कृषि उत्पादकता में वृद्धि होती है उधोगो के कारण ही ट्रैक्टर ,थ्रेशर, और हार्वेस्टर के प्रयोग से ही कृषि उत्पादकता में वृद्धि हो पाई है |
- जब देश में सभी वस्तुओ का निर्माण होने लगता है तो देश की विदेशो पर निर्भरता कम होती जाती है और देश को आत्मनिर्भर विकास की ओर ले जाता है |
- देश में उत्पादकता बढ़ने से अतिरेक उत्पादन शेष विश्व को बेचा जा सकता है जिससे निर्यात को बढ़ावा मिलता है जोकि एक देश के विकास के लिए अतिआवश्यक तत्व है इस प्रकार औद्योगीकरण एक अर्थव्यवस्था के सम्पूर्ण विकास का मूल घटक है |
- उद्योगों ने शरीकरण को बढ़ावा दिया है जिससे एक नई सभ्यता का जन्म हुआ है जो रहन सहन के ऊँचे स्तर को पाने के लिए कठिन परिश्रम करते है इससे विभिन्न समाज एक दूसरे के समीप आने लगे है |
- औद्योगीकरण के कारण ही देश की आधारिक संरचना की अधिक जरुरत महसूस हुई है इसलिए बैंकिंग,बीमा ,यातायात,संचार सड़के,स्वास्थ्य,शिक्षा की माँग बढ़ी है जिससे इस क्षेत्र का भी विकास हुआ है |
INDUSTRIAL POLICY RESOLUTION (IPR) 1956
1956 की औद्योगिक नीति :-
1956 की औद्योगिक नीति में निम्न बातों को अधिक महत्व दिया, जो निम्नलिखित है:-
(1) उद्योगों का वर्गीकरण तथा सार्वजनिक क्षेत्र का बढता हुआ महत्व :- इस नीति में देश के सम्पूर्ण उद्योगों को तीन प्रमुख भागों में बांटा गया जिसका उद्देश्य निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को तय करना था।
- अनुसूची (A) में 17 उद्योग सम्मिलित किये गए, जिनके भावी विकास का पूर्ण दायित्व राज्य को सौंपा गया अन्य शब्दो में इसमें उन उद्योगों को शामिल किया गया जो राज्य द्वारा स्थापित जाऐंगे। जैसे अस्त्र-शस्त्र, सैनिये सामग्री, परमाणु शक्ति, लोहा व इस्पात, कोयला,खनिज ,तेल, शीशा, जस्ता, भरी मशीन आदि
- अनुसूची (B) में 12 उद्योगों को सम्मिलित किया गया, जिनकों धीरे-2 सरकार अपने स्वामित्व में ले लेगी और सामान्य रूप से इस क्षेत्र में सरकार नई औद्योगिक इकाईयो की स्थापना कर सकेगी। राज्य यदि उचित समझता है तो निजी उद्यमियों से सहयोग प्राप्त कर सकता हैं। इसमें सड़क परिवहन, समुद्री परिवहन, रसायनिक उद्योग, मशीन टूल्स , प्लास्टिक, रबड़ उद्योग , कोयला और लोह उद्योग जो उपरोक्त श्रेणी में शामिल न हो
- अनुसूची (C) में शेष सभी उद्योगों को शामिल किया गया है। इन उद्योगों की स्थापना को निजी उद्यमियों के प्रयासो पर छोड दिया गया हैं। लेकिन सरकार यदि चाहे तो इस क्षेत्र में भी यह किसी भी औद्योगिक इकाई की स्थापना कर सकती है।
(2) कुटीर एंव लघु-उद्योगों के विकास को महत्व :- इस नीति में कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास को काफी महत्व प्रदान किया गया है। इन उद्योगों के लिए नियोजित अर्थव्यवस्था में निम्नलिखित भूमिका तय की गई :- - बडे़ पैमाने पर रोजगार प्रदान करना
- राष्ट्रिय आय का समान वितरण करना
- अप्रयुक्त स्थानीय संसाधनों का पूर्णतम उपयोग करना
औद्योगिक लाइसेंसिंगः – निजी क्षेत्र में उद्योगो को स्थापित करने के लिए सरकार से लाइसेंस लेना आवश्यक बना दिया। इसका मुख्य उद्देश्य निजी उद्योग के अंधाधुंध विस्तार पर रोक लगाना था।
(3) औद्योगिक रियायतें :–
औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया में जहाँ सरकार की भूमिका प्रमुख होगी वहाँ देश के पिछड़े क्षेत्रो में उद्योगों की स्थापना के लिए निजी उद्यमियो को कई प्रकार की रियायतें प्रदान की गई। इन रियायतो में पिछड़े क्षेत्रो में नई औद्योगिक इकाइयो की स्थापना के लिए करों में छूट तथा रियायती दरो पर बिजली की आपूर्ति सम्मिलित थे।
इस प्रकार हमने समझा कि 1956 की औद्योगिक नीति में मुख्य रूप से सार्वजानिक क्षेत्र के विस्तार पर जोर दिया गया है इसके साथ साथ निजी क्षेत्र का भी विकास किया गया था जैसे वित्तीय संस्थाओ की स्थापना करना, उद्योगों को पर्याप्त लइसेंस देना आदि|
भारत के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका
सार्वजानिक उद्यम वे होते हे जिनका स्वामित्व व प्रबंध केंद्रीय सरकार व राज्य सरकार के हाथो में होता है इनका उद्देश्य जनकल्याण करना होता है इनके रूप कुछ इस प्रकार हो सकते है
1 विभगीय उधम : भारतीय रेल, डाक तार विभाग, अणु शक्ति
2 सार्वजानिक निगम :- भारतीय खाद्य निगम, भारतीय जीवन बीमा निगम
3 सरकारी कम्पनी :- भारतीय इलेक्ट्रॉनिक लिमिटिड (BEL) भारतीय हैवी इलेक्ट्रॉनिक लिमिटिड, हिंदुस्तान मशीन टूल्स आदि
4 होल्डिंग कम्पनी :- स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटिड (SAIL)
भारत के आर्थिक विकास सार्वजनिक क्षेत्र और सरकार की भूमिका में योगदान :-
निजी उद्यमी के पास पूँजी का आभाव :- भारत में औद्योगिक विकास के लिए बड़े निवेश की आवश्यकता थी और आजादी के समय केवल टाटा और बिरला ही बड़े उद्यमी थे जो सम्पूर्ण पूंजी की माँग को पूरा नहीं कर सकते थे इसलिए राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के विकास का बोझ अपने ऊपर लेना अनिवार्य था |
निवेश की प्रेरणा :- निजी उद्योमियो को जब तक लाभ का लालच नहीं दिया जाता तब तक वो निवेश के लिए तैयार नहीं और ये काम केवल राज्य सरकार और केन्द्र सरकार ही कर सकती है |
एकाधिकार का भय :- यदि औद्योगिक ढाँचा कुछ चंद लोगो के नियंत्रण में आ जाता तो शायद ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह कोई और कम्पनी भारत में स्थापित हो जाती इस एकाधिकार को रोकने के लिए सार्वजानिक क्षेत्र का होना अनिवार्य था साथ ही सार्वजानिक क्षेत्र कल्याण के उद्देश्य से उत्पादन करते है और अधिक रोजगार के अवसर भी प्रदान करते है |
राष्ट्रीय आय में योगदान :- राष्ट्रीय आय में सार्वजानिक क्षेत्र का योगदान निरंतर बढ़ रहा है1960 -61 से 2006 -07 तक शुद घरेलु उत्पाद में वृद्धि लगभग दुगनी हो गई थी देश का 25 % से अधिक शुद्ध घरेलु उत्पाद सार्वजनिक क्षेत्र से प्राप्त होता है |
आय व धन का समान वितरण :- स्वतंत्रता से पहले भारत में उद्योग निजी क्षेत्र के अधीन थे जिससे आय व धन की असमानता बढ़ती जा रही थी इसलिए आर्थिक साधनो के केन्द्रीयकरण को रोकने के लिए सावर्जनिक क्षेत्र होना आवश्यक है जिससे आय और धन का सामान वितरण हो |
औद्योगिक विकास :- स्वतंत्रता के समय औधोगिक विकास की गति काफी निराशा जनक थी इसलिए औधोगिक विकास की गति को तेज करने के लिए सरकारी क्षेत्र का विस्तार करना जरुरी है |
पिछड़े क्षेत्रो का विकास :- सरकारी क्षेत्र आने से औद्योगिक क्षेत्रीय असमानता में कम की जा सकती है क्योकि सरकार पिछड़े क्षेत्रो में उद्योगों की स्थापना करती है जिससे उस क्षेत्र का विकास होता है |
प्रतिरक्षा :- देश की रक्षा के लिए और अति आवश्यक वस्तुओ के उत्पादन के लिए हम केवल निजी क्षेत्र पर भरोसा नहीं कर सकते है इसलिए सावर्जनिक क्षेत्र होना आवश्यक है |
अन्य योगदान :- रोजगार प्रदान करने के लिए, औद्योगिक ढाँचा मजबूत करने के लिए और आयात प्रतिस्थापन को बढ़ावा देने के लिए सार्वजानिक क्षेत्र का होना जरुरी है |
छोटे पैमाने के उद्योग :- लघु और कुटीर उद्योगों को छोटे पैमाने के उद्योग कहते है इसमें पूंजी निवेश 25 लाख से 5 करोड़ रुपए तक किया जाता है इसके अतिरिक्त जिन उद्योगों में ये निवेश 25 लाख तक किया जाता है उसे अति लघु उद्योगो की श्रेणी में रखा जाता है प्राय: इन उद्योगों में उत्पादन मशीनो के माध्यम से किया जाता है और शक्ति साधनो का यहाँ विशेष स्थान होता है इसके अतिरिक्त इन उद्योगों के लिए कच्चा माल देश के बड़े – बड़े बाजारों से मंगवाया जाता है |
भारतीय अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास में छोटे पैमाने के उद्योगों का योगदान :-
रोजगार में वृद्धि :- लघु व कुटीर उद्योग प्राय: श्रम प्रधान होते है तथा इनके संचालन के लिए बहुत कम पूंजी की आवश्यकता है| अतः यह उद्योग साधारण व्यक्ति द्वारा आसानी से संचालित किए जा सकते है| इन उद्योगों से अल्परोजगार व्यक्तियो तथा किसानो को भी खाली समय में आसानी से रोजगार मिल जाता है | इन उद्योगों में प्रतिवर्ष लगभग 2 लाख लोगो को रोजगार प्राप्त होता है |
पूंजी उत्पादन अनुपात :- इन उद्योगों में बड़े उद्योगों की अपेक्षा पूंजी उत्पादन अनुपात अधिक होता है अर्थात लघु व कुटीर उद्योगों में कम विनयोजन (निवेश ) कर बड़े उद्योगों की अपेक्षा अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है एक सर्वे के अनुसार पूंजी की एक इकाई के प्रयोग से लघु उद्योगों के उत्पादन की मात्रा में 1.1 % की वृद्धि होती है और बड़े उद्योगों में ०.48 % अतः इनमे कम विनियोग करके अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है |
आय के समान वितरण में सहायक :- बड़े उद्योगों में उच्च अधिकारी को अधिक वेतन तथा छोटे कर्मचारियों को कम वेतन दिया जाता है| जिससे आय की असमानता को बढ़ावा मिलता है जबकि लघु और कुटीर उद्योगों में स्वामित्व प्राय: साधारण व्यक्तियों व परिवारों के हाथ में होता है जहां न तो कोई बड़ा पद होता है और न छोटा अतः प्राय इन उद्योगों में आय का लगभग एक समान किया जाता है |
संतुलित क्षेत्रीय विकास :- बड़े पैमाने के उद्योगों को स्थापित करने के लिए अच्छी आधारिक संरचना (विकसित क्षेत्र ) की आवश्यकता होती है इसीलिए ये उद्योग शहरों में स्थापित किये जाते है| जिससे क्षेत्रीय असंतुलन को बढ़ावा मिलता है जबकि दुसरी तरफ लघु व कुटीर उद्योगो को पिछड़े क्षेत्रो में भी आसानी से विकसित किया जा सकता है| इस प्रकार ये उद्योग क्षेत्रीय संतुलन को बढ़ावा देते है |
रोजगार का स्थायित्व :- बड़े उद्योगो में उत्पादित माल की मांग कम होने पर बेरोजगारी फैल जाती है| किन्तु कुटीर उद्योगों में प्राय: दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली वस्तुओ का निर्माण किया जाता है और ये देश के कोने कोने में फैले होते है इसलिए इन उद्योगों में मंदी और बेरोजगारी जैसी समस्या का भय कम रहता है |
औधोगिक समस्याओ का आभाव :- बड़े पैमाने के उद्योगों में प्राय: श्रमिक संगठन व प्रबंध के मध्य वाद – विवाद होते रहते है| जिसके कारण इन उद्योगों में श्रमिक हड़ताल,तालाबंदी होती रहती है लेकिन छोटे पैमाने के उद्योगों में इन समस्याओ का आभाव रहता है |
शीघ्र उत्पादन :- लघु उद्योगो की स्थापना, संचालन आदि के लिए किसी विशेष तकनीकी ज्ञान और अनुभव की आवश्यकता नहीं होती है| अतः इन उद्योगों की स्थापना एक साधारण व्यक्ति द्वारा भी की जा सकती है व उत्पादन कार्य प्रारम्भ करने में कम से कम समय लगता है और शीघ्र लाभ मिलना शुरू हो जाता है |
निर्यात में योगदान :- वर्तमान समय में भारत के कुल निर्यात में लघु व कुटीर उद्योगों का योगदान उल्लेखनीय रहा है | 1970 -71 में देश के कुल निर्यात में इन उद्योगों का योगदान मात्र 11 % था जोकि 1996 -97 में बढ़कर 33% हो गया है अतः इन 26 सालो में इनका निर्यात में योगदान तीन गुना बढ़ा है इसमें मुख्य रूप से सिले सिलाए वस्त्र, चमड़े का सामान, खेल- कूद का सामान, इंजीनियरिंग का सामान शामिल है |
1950-1990 अवधि तक की औद्योगिक विकास की रणनीति की विशेषताएं :-
- विकास की इस नीति में सार्वजानिक उद्योगों के केंद्रीयकरण पर विशेष ध्यान दिया गया |
- निजी क्षेत्र को उद्योगों की स्थापना करने के लिए विशेष लाइसेंस लेना था और उत्पादन भी केवल एक सीमा तक ही करना था इसके लिए विशेष MRTP Act बनाया गया |
- जो वस्तुएँ विदेशो से आयात की जाती थी उन वस्तुओ को जहाँ तक संभव हो अपने ही देश में बनाने कोशिश की गई इस नीति को “आयात प्रतिस्थापन” के नाम से जाना जाता है इसका मुख्य उद्देश्य औद्योगिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना था |
- घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतियोगिता से बचाने के लिए आयात पर भारी शुल्क लगाया गया तथा आयात का कोटा भी निर्धारित किया गया |
- देश में बड़े पैमाने के उद्योगों का निर्माण किया गया ताकि देश की आधारिक संरचना की नींव को मजबूत किया जाए |
- देश में आय की असमानता को कम करने के लिए और रोजगार के नए अवसर उपलब्ध कराए गए |
अच्छे प्रभाव :
इससे देश में एक बड़ा निवेश किया गया जिससे औद्योगिक उत्पादन में 6 प्रतिशत वृद्धि देखी गई |
औद्योगिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा विकास इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग में हुआ है इसे सूर्योदय उद्योग कहते है |
बढे पैमाने के उद्योगों की बात करे तो राऊरकेला और भिलाई के इस्पात कारखानों ने आधारिक संरचना को मजबूत किया |
लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने से संतुलित विकास की प्रकिया आरम्भ हुई है |
बुरे प्रभाव :–
- सार्वजानिक क्षेत्र का एकाधिकार होने से अकुशलता , भ्र्ष्टाचार और चोरी आदि को बढ़ावा मिला जिससे देश के दुर्लभ संसाधनों कुशलतम प्रयोग नहीं हुआ |
- लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने से संतुलित विकास की प्रकिया आरम्भ हुई है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर उद्योगों की गुणवत्ता में कमी आयी |
- उद्योगों में प्रतियोगिता न होने पर वे अधिक उत्पादन के लिए प्रेरित नहीं होते थे और न ही आधुनिक तकनीक को बढ़ावा मिला |
- “आयात प्रतिस्थापन” को बढ़ावा देने से विदेशी विनिमय में कमी आई यह इतना कम हो गया की हमें विदेशो से ऋण लेने के लिए विश्व बैंक के पास अपने सोने के भंडार को भी गिरवी रखना पड़ा |
विदेशी व्यापार
स्वतंत्रता के समय भारत से ब्रिटेन को कच्चा माल बहुतायत में निर्यात किया जाता था, दूसरी ओर ब्रिटेन से तैयार माल भारत में आयात किया जाता था।
विशेष रूप से हमारा व्यापार संतुलन अनुकूल था (निर्यात> आयात) लेकिन बाद में हमारा विदेशी व्यापार संयुक्त अरब अमीरात(UAE),चीन,स्विजरलैंड,सिंगापुर,आस्ट्रेलिया,ईरान,हांगकांग,कोरिया,इंडोनेशिया,UK,जापान और बेल्जियम से होने लगा इनमे मुख्य UAE और चीन है
स्वतंत्रता के बाद भारत के विदेश व्यापार में पंचवर्षीय योजनाओ के कारण उल्लेखनीय परिवर्तन दर्ज किया गया जैसे कि।
(i) कृषि निर्यात के प्रतिशत हिस्से में गिरावट :- इसका कारण यह था की भारत में छोटे उद्योगों को बढ़ावा मिलने से कृषि उत्पाद का प्रयोग कच्चे मॉल के रूप में देश में बढ़ गया तथा जनसँख्या में भी तेजी से वृद्धि देखी गई जिससे घरेलु उपयोग के लिए भी इनकी मांग बढ़ गई इस प्रकार निर्यात में कृषि पदार्थो का योगदान कम हो गया
(ii) कुल निर्यात में विनिर्मित वस्तुओं के प्रतिशत हिस्से में वृद्धि :- औद्योगिक विकास के कारण निर्मित वस्तुओ के उत्पादन में काफी वृद्धि देखी गई और अतिरेक को निर्यात के रूप में विदेशो को बेचा गया|
(iii) निर्यात व्यापार और आयात व्यापार की दिशा में परिवर्तन:- भारत पहले जूट, चाय, खाद्यान और खनिज का निर्यात किया करता था लेकिन योजनाबद्ध विकास होने से इन पदार्थो की मांग देश में बढ़ गई जिससे इनके निर्यात में कमी आई |
पंचवर्षीय योजनाओ के कारण विदेशी व्यापार में काफी उछाल आया पहली योजना में विदेशी व्यापार 6760 करोड़ था जो दसवीं योजना में 46,10,335 करोड़ हो गया जोकि 682 गुना वृद्धि को दर्शाता है लेकिन विश्व व्यापार में ये योगदान काफी कम था 1950-51 में हमारा योगदान 1.8 % था जो 1991 में केवल ०.5 % रह गया इसलिए सातवीं योजना के अंत तक ये परिवर्तन नाममात्र का था |
नोट :- 1991 की नई नीति के कारण ये बढ़ा भी है
व्यापार नीति :-
भारत की पहली सात पंचवर्षीय योजनाओं में, व्यापार को आमतौर पर ‘Inward looking Trade Startegy’ आंतरिक दृष्टि व्यापार रणनीति कहा जाता था। इस रणनीति को तकनीकी रूप से ‘आयात प्रतिस्थापन‘ के रूप में जाना जाता है।
आयात प्रतिस्थापन से अभिप्राय देश के अंदर उन वस्तुओ के उत्पादन को बढ़ावा देने से है जिन वस्तुओ को विदेशो से आयात किया जाता है| इन उद्योगों को संरक्षण प्रदान करने के लिए भारी आयात शुल्क लगाए गए और उनका कोटा निर्धारित किया गया ऐसा करने का मुख्य उद्देस्य विदेशी विनिमय की बचत करना था और साथ ही निर्यात को प्रोत्साहित करने की नीति को भी अपनाया गया ताकि अंतराष्ट्रीय बाजारों में हमारी भागीदारी बढे और अधिक से अधिक विदेशी विनिमय अर्जित हो |
घरेलू उद्योग पर आंतरिक दृष्टि व्यापार रणनीति का प्रभाव।
1. इसने विदेशी वस्तुओ के आयात को कम करके विदेशी मुद्रा को बचाने में मदद की।
2. इस नीति ने भारत के लिए एक संरक्षित बाजार बनाया जिससे घरेलू उद्योगों से उत्पादित वस्तुओं की मांग विश्व स्तर पर बढ़ गई है अब हमारे उद्योग कपडे और पटसन के उद्योग तक ही सीमित नहीं रहे इसमें इंजीनियरिंग वस्तुए तथा उपभोक्ता वस्तुओ की एक बड़ी श्रेणी शामिल हो गई |
3. इसने हमारे देश में एक मजबूत औद्योगिक आधार बनाने में मदद की जिससे आर्थिक विकास तेजी से होने लगा और SSI में रोजगार के नए नए अवसर मिलने शुरू हो गए |
4 . इसी से समकालीन उदीयमान उद्योगों (सूर्योदय उद्योगों ) अर्थात इलेक्ट्रॉनिक उद्योग का विकास हुआ क्योकि सरकार ने इन वस्तुओ के आयात पर भारी शुल्क लगा दिया जो आरम्भ में लगभग 400 प्रतिशत था संरक्षण की इस नीति से ही ऑटोमोबाइल उद्योगों का विकास हुआ यदि सरकार इन्हे अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता से सुरक्षा नहीं देती तो ये उद्योग बर्बाद हो जाते |
आंतरिक दृष्टि व्यापार रणनीति की आलोचना
1. प्रतियोगिता की कमी :- आधुनिकीकरण को बढ़ावा तभी मिलता है जब उद्योगों में प्रतियोगता होती है यही कारण है भारत के ऑटोमोबाइल उद्योगों में संरक्षण के कारण केवल FIAT और Ambassador कारो ने एकाधिकार का फायदा लिया |
2. सार्वजनिक उद्योगों का विस्तार :- किसी भी देश में जनकल्याण वाली वस्तुओ का निर्माण सार्वजनिक उद्योगों द्वारा ही किया जाना चाहिए लेकिन डबलरोटी और जूतों का निर्माण भी जब इन उद्योगों से करवाया गया तो ये एक नासमझी वाला निर्णय था क्योकि इससे निजी उद्यमो निवेश के अवसरो को ख़त्म किया जा रहा था जिससे वो देश से बाहर व्यापार करने के लिए मजबूर हो रहे थे |
3. सार्वजनिक एकाधिकार का अकुशल विकास :- इसका सबसे बड़ा उदाहरण दूरसंचार है 1990 तक ये सरकार के अधिकार में रहा और कनेक्शन लेने के लिए वर्षो इंतजार करना पड़ता था और आज आसानी से हम इसका कनेक्शन ले कर सुविधा का लाभ ले रहे है |
4. बीमार उद्यमो को चलाना :- सार्वजनिक उद्यम घाटे में चल रहे थे उन्हें सरकार चाहकर भी बंद नहीं कर पा रही थी क्योकि श्रम संघो और विपक्ष दोनों रोजगार छीनने और समाजिक अन्याय का आरोप लगाने लगते थे इसलिए घाटे में भी इन उद्योगों को चलाना सरकार की मजबूरी थी |
MCQ स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले Full Notes